Wednesday, May 12, 2010

बुजुर्गो ने कहा है

बुजुर्गो ने कहा है
वक़्त अच्छा हो या बुरा, बदलता जरुर है
किस्मत का सिक्का खोटा हो या खरा
एक न एक दिन चलता जरुर है
किस्मत कभी बदलती नहीं
बस ठिकाना बदलता है
कही काम करती है चुटकी
कही हथौड़ा चलता है
फटी हुई पतलून पर लग सकता है पैबंद
वीराने टापू पर भी 
रहने का हो सकता है प्रबंध
हालातो से समझौते का जुगाड़ जमाना होता है
नसीब ही बुरा है 
ये बेबुनियाद बहाना होता है
कैलेंडर पे छपा हुआ गीता का सार पढो तुम
लो औज़ारो को हाथ
औ खुद अपना आकार गढ़ों तुम
तप जाती जब धरती पूरी
तो घनश्याम पिघलता जरूर है
वक़्त अच्छा हो या बुरा
बदलता जरूर है!

Sunday, May 9, 2010

सूरज यहाँ कुछ ज्यादा ही मेहरबान है

सूरज यहाँ कुछ ज्यादा ही मेहरबान है
इसलिए धरती बंजर है बेजान है
नदिया चौमासे में भी सुखी रहती है
कभी पानी बहता था अब उनमे धुल बहती है
देश में कभी भारत उदय होता है कभी भारत निर्माण होता है
पर हम तो अब भी भूखे नंगे हैं
इनसे जाने किनका कल्याण होता है...
यहाँ खेतो में उगता है सुखा पेट में भूख पलती है
ज़िन्दगी यहाँ रोटी से नहीं
मिड दे मील और नरेगा के आश्वासन से चलती है
गाँव निर्मल है हर घर में शौचालय है
भले ही अस्पताल नहीं न ही विद्यालय है
कब्ज़ और अतिसार से पीड़ित लोग कागज़ी शौचालयों में नहीं
बंजर खेतो में नज़र आते है
कंटीली झाड़ियो से शर्म का पर्दा बनाते है
साल गुज़रे जनसँख्या बढ़ी
पर गाँव वीरान हैं
बूढ़े हैं बच्चे हैं महिलाये हैं
पर न कोई भी नौजवान है
दिल्ली और भोपाल दोनों ही बहुत दूर हैं
किससे पूछे की गर देश बढ़ रहा है
तो हम क्यों मजबूर हैं
क्यों उनकी आवाज़ हर ५ साल में बस चोंगे पे सुनाई देती है
पैरो पे खड़े मुर्दों की सूरत उनको क्यों न दिखाई देती है
शायद उनके नयनो को भाते बस मालाओ के नोट हैं
इस मुल्क में हम इन्सान नहीं, महज़ चुनावी वोट हैं!!!!

Saturday, May 8, 2010

ज़िन्दगी में संघर्ष कब बीतता है

ज़िन्दगी में संघर्ष कब बीतता है
इस युद्ध में बस वही जीतता है
जो भले ही गिरे बार बार लगातार
झोंक के खुद को जो फिर खड़ा हो एक बार
कील भी दीवार में ठुकती नहीं एक बार में
जीत पाना बस यूँ ही मुश्किल बड़ा संसार में
जो कुछ भी मिलता है सहज
वह जय नहीं संजोग है
जूझने वाला ही बस होता सुयश के योग्य है
डूब जाता है ये मन तन छोड़ता है साथ
रोड़े लगते सब यहाँ न थामे कोई हाथ
ताने सुने फब्ती सहे और सहे परिहास
पर सुप्त न हो लुप्त न हो कर सके अट्टहास
बस वही है जीतता यह अपरिमित युद्ध
जो हार के कीचड़ में भी सन कर है रहता शुद्ध!!!!!!

Wednesday, May 5, 2010

जन्मदिन

जन्मदिन
मौका है जश्न का या मातम का,
ये कभी समझ नहीं पाया
जश्न इस बात का की तमाम मुश्किलों,परेशानियो,
अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली परिस्थितियों के बावजूद
कायम हैं,
या फिर मातम
की मौत की तरफ एक जीना और चढ़ गए...
जन्मदिन ही क्यों,
ज़िन्दगी के मायने भी क्या समझ पाया है कोई???
कभी जैसे गर्मी की छुट्टियों में बिना आरक्षण
ढेरो सामान के साथ
हिन्दुस्तानी रेल में एक जगह से दूसरी जगह का लम्बा सफ़र
कभी जैसे हवाई झूले का उतर चढ़ाव
जिसमे चीख डर से निकलती है या उत्साह से
ये खुद को भी मालूम नहीं होता!!!!!!