Friday, April 30, 2010

उड़ चुकी है नींद अब ख्वाबो के जोर से

उड़ चुकी है नींद अब ख्वाबो के जोर से,
एक आवाज़ आती है जाने किस ओर से!
खिल रही थी धुप अब तक आसमानों में,
घिर गए सहसा ये बदल घनघोर से!
फिर रहे थे लेकर दुनिया बाज़ुओ में हम,
आज पर पड़ने लगे है कमज़ोर से!
चीख को कैसे सुरों का नाम दे दू अब,
महफिले सजती है मरघट के छोर से!
हाथ में अंगार लेकर रौशनी की है,
कुछ मशाले आ रही है उस मोड़ से!

कल जब मैंने अपने दिल से पूछा

कल जब मैंने अपने दिल से पूछा
कि वो तुम्हें इतना प्यार
आखिर करता क्यों है
मेरे दिल ने मुझ पर ही
सवाल दाग दिया
कहने लगा
सूरज क्यों देता है रोशनी
हवाओं में क्यों ज़िन्दगी है
तितली में क्यों रंग हैं होते
ज़माने में क्यों बंदगी है
झरना क्यों बहता रहता है
सागर में क्यों लहरें है
जहाँ भर के दर्द मिटाते
क्यों मासूम चेहरे हैं

तुमने कभी देखा है


तुमने कभी देखा है
अपनी आँखों को
मेरी आँखों के आईने में
वो बोलती हैं, हँसती है
चमकती है
जैसे दूर कहीं अँधेरे में
दो दीये झिलमिला रहे हों
जिनकी चमक से मुझमें उजाला है
मैंने देखा है
वो बाहें खोल बुलाती है
खुद में डूबा लेने को
सागर से भी ज्यादा गहराई में
समां लेने को
तुम्हारी आँखों में क्या है
ये शायद तुम भी नहीं जानती
जानना चाहोगी
आना
देखना कभी अपनी आँखों को
मेरी आँखों के आईने में 

पुरुष व्यग्र-सा अधीर-सा

पुरुष व्यग्र-सा अधीर-सा
चला जा रहा था
एक अनजान दिशा की ओर
रिक्त-रिक्त विश्व था
आवाजें थी सन्नाटे की
सी-सी करती हुई
पर्णहीन वृक्ष, तृणहीन थी धरा
सूरज की किरणें चुभ रही थीं
लथपथ
शरीर स्वेद से, पग रक्त से
चला जा रहा था वह
अवचेतन, अनमयस्क-सा
अंततः दृश्य परिवर्तित हुआ
नवपलाश वृक्षों पर फूटे
धानी हो गयी धरती सारी
कलरव गूँज उठा विहगों का
पुष्पों से झुक-झुक आई दारी
पुरुष ठहर गया आखिर में
चलने लगी बयार, मिटाते सारे विकार
सूरज की भी गर्मी पिघल गयी
सृष्टि मुस्कुराई
पुरुष को नारी मिल गयी 

जब से मैंने तुमको जाना

जब से मैंने तुमको जाना
तब से जाना प्यार क्या है
होती है क्या कमसिन खुशबू
जाना होती बहार क्या है
इस अनजाने निष्ठुर जग में
जैसे तुमसे ही कोमलता आई है
तुमसे ही रोशन हैं सारे नज़ारे
दुनिया ने तुमसे ही ख़ुशी पाई है
मैं तो था जैसे बिखरा-बिखरा
तुमने ही मुझको आकार दिया
तुमने ही जीना सिखलाया
जीने को ज़रूरी प्यार दिया

जग परेशान था

जग परेशान था
वक़्त बेज़ार था
पर मैं खुद में खुश था
दिल मुस्कुराता था
पर मैं बाहर से चुप था
मुस्कुराहट की लाली
बदन पर खिल गयी थी
ऐसी क्या चीज़ थी
मुझको जो मिल गयी थी
ये सोचकर ज़माना हैरान था
रंग फिजाओं में सारे
जैसे घुल गए थे
दुनिया क्यों न जले
मुझको तुम जो मिल गए थे

कल बहुत देर तक की

कल बहुत देर तक की
पत्थरों से बातें हमने
उनमें तुम्हारा ही चेहरा छुपा था
सर झुकाये गये दिल के मंदिर में
दरवाजे पर तुम्हारा नाम खुदा था
मूरत देखे बिना ही लौट आये
ज़रुरत ही महसूस न हुई
कल्पनाओं ने उसे एक कली बना दिया
अनखिली अनछुई 
जिसकी खुशबू से महका हुआ
दिल का गुलिस्तान है
नाम क्या दें इस एहसास को
हैरानी है,
हम इससे अनजान है !

सौ सीढियाँ

सौ सीढियाँ
हूँ चढ़ चुका
पर शीर्ष से अभी भी
बहुत नीचे हूँ
ये तो महज़ एक पड़ाव है
एक चौराहा
जहां से एक नया सफ़र
शुरू होगा
मंज़िल की बात तो छोडो
आगे कौन-सा रास्ता चुनना है
ये भी नहीं मालूम
फिर भी मेरा सफ़र जारी है
और शायद मेरी राह
सही ही है
क्योंकि ज़िन्दगी की मंज़िल
आखिरकार सफ़र ही तो है

मैंने तुम्हे महसूस किया है

मैंने तुम्हे महसूस किया है
तब, जब हवायें शोर करती हैं
या जब हो जाती हैं वो बेजुबां
     मैंने तुम्हे महसूस किया है
जब भीड़ में आ जाती है तन्हाई
या जब गीत गाती हैं खामोशियाँ
     मैंने तुम्हे महसूस किया है
जब शाम के धुंधलके में
रात समाने लगती है
या जब तेज़ हवायों पर सवार
बूंदों का तूफ़ान गुज़र जाता है
     मैंने तुम्हे महसूस किया है
जब दिल खिल जाता है खुशियों से
या जब मन उदासी के पड़ाव पर ठहर जाता है
     मैंने तुम्हे महसूस किया है
सीधे-सीधे कहूँ तो
हर धड़कन, हर साँस में
उस हर एक लम्हे में
जो मैंने जिया है
     मैंने तुम्हे महसूस किया है

जब कभी अपने

जब कभी अपने
अस्तित्व के बारे में सोचता हूँ
तो बस यही पाता हूँ
कि 
चंद अक्षर हैं 
जो आपस में जुड़कर 
मेरी पहचान बन गये हैं
लगभग वैसे ही
जैसे हाड़-माँस के
कुछ पुरज़े आपस में जुड़कर
इंसान बन गये हैं 

कहना था जो तुमसे

कहना था जो तुमसे
वो दबा ही रह गया
बेकरार दिल का फ़साना
छुपा ही रह गया
छोटी-सी ही बात थी
फिर भी बेहद ख़ास थी
तल्खी अपने जोर पे थी 
पर प्याला खाली ही रह गया
तुमने देखा नहीं क्या आँखें 
बेकरार-सी थीं 
महसूस किया न तुमने
साँसें जार-जार-सी थीं
किस तरह से समझाऊँ तुमको
अपने दिल का आलम 
तुमको पाने का ख्वाब
बस
ख्वाब ही रह गया 

ये सच की तुम दूर हो

ये सच की तुम दूर हो
सच नहीं है
मैं हर पल तुम्हें अपनी साँसों के पास पाता हूँ
हाथ बढाऊँ तो छू ही लूं
पर ये सोचकर ठिठक जाता हूँ
छू दूं कहीं तुम मैली न हो जाओ
कुछ फासला ही सही
पर सामने तो हो
सब कुछ लुटा के पाया है तुमको
कहीं बिछड़ न जाओ
पर तुम मुझसे बिछडोगे कैसे
तब मैं खुद से जुदा हो जाऊँगा
धडकनों के बिना शायद कुछ पल मैं जी भी लूं
लेकिन तुम्हारे बिना...
तुम्हारे बिना पल भर में मर जाऊँगा

हे कवि !

हे कवि !
मेरे अक्षरों की
आड़ी तिरछी रेखाओं के बीच
तुम्हारी रचनायें
वैसे ही हैं जैसे
गंदले तालाब में खिली हुई कुमुदनी
मेरे शब्दों के तंग खाको के बीच
तुम्हारी उपस्थिति 
उन्हें व्यापकता प्रदान करती है 
मेरे विचारों में दुराव था
या शायद शब्दों का अभाव था
किन्तु तुम्हारा सानिध्य पा
मैं भी मुखर उठा हूँ
जानता हूँ तुम जैसा नहीं बन सकता
फिर भी प्रयास में जुटा हूँ 

कभी-कभी ऐसा क्यों लगता है

कभी-कभी ऐसा क्यों लगता है
कि किसी अपने के पहलू में
खुद को छुपाकर
दुनिया को भुला दे
भूल जायें साँसें लेना
धडकनों की भी आवाज़ मिटा दें
क्यों लगने लगता है ज़रूरी
जिंदा होने के एहसास के लिया
की ज़िन्दगी का कोई निशाँ न रहे
कुछ पल के लिए
घुल जायें हवाओं में
अपनी कोई पहचान न रहे

उन दिनों के हवा होने पर

उन दिनों के हवा होने पर
जब महफ़िलों में हमारा रसूख था
तन्हाई को भी जीने का
अंदाज़ हमारा क्या खूब था
खुद को ही दो हिस्सों में बात लेते थे
खुद से ही बहस कर वक़्त काट लेते थे
अपनी ही किसी बात पर ठहाका मार कर
आईने के सामने खुद के लिए खुद को संवार कर
अकेले ही ज़िन्दगी क़ी सैर पर निकल जाते थे
हमारी ज़िन्दादिली देख
पत्थरों के दिल भी पिघल जाते थे
तस्वीरों के लिए ख़त लिखते
पढ़कर उन्हें सुनाते थे
ख्यालों क़ी ईंटों से हकीक़त का सपना बनाते थे
वो मीठी-सी ख़ामोशी
व तन्हाई का आलम
अब याद बहुत आता है
ज़िन्दगी का शोर, चारो ओर जमी भीड़ का जोर
आँखों क़ी कोरों में पानी ले आता है 

मैं अब खुद क्या कहूँ

मैं अब खुद क्या कहूँ
कवि !
तुमने तो
मेरे भीतर के सारे भाव चुरा लिए
जिन शब्दों के आभूषण पहना
मैं अपने भावों को सजाना चाहता था
इन्हें तुमने पहले ही
जग के पटल पर चस्पा कर दिया
मैंने जब ये सब देखा
तब अंतर में एक ही प्रश्न उभरा
तुम तो कवि थे
चोर कब से हो गये ?

बीता हुआ लम्हा कभी गुज़रता नहीं है

बीता हुआ लम्हा कभी गुज़रता नहीं है
यादों का सैलाब कभी ठहरता नहीं है
एक लहर-सी उठती है जब तब दिल में
डूबी हुई घड़ियाँ दिखती हैं
गुज़रे कल के साहिल में
एक ठंडी सिहरन सर से पाँव तक दौड़ जाती है
'कल' से आज को, आज से 'कल' को जोड़ जाती है
आखिर हम जो आज हैं
उसकी नींव कल ही तो पड़ी थी
भले ही निकल पड़े हो नई क़ी तलाश में
कल तो ज़िन्दगी पुरानी मंजिल पर ही खड़ी थी
वैसे भी क्या पता
इस दुनिया में कब 'कल' ही 'कल' बन जाये
जिस बाने को समेट कर रख चुके हैं
वो फिर से तन जाये 
इसलिए बीते लम्हों को गुज़रा हुआ मत मानों
यादों में हलचल है उन्हें ठहरा मत जानों
जिससे, गर ज़िदगी फिर से
उसी मोड़ पर ले आये
तो 'कल' जो बिगड़ गया था
'कल' वो सँवर जाये 

माना अभी धुंधला सवेरा है

माना अभी धुंधला सवेरा है
काले बादलों ने सूरज को घेरा है
इससे सूरज बुझा तो नहीं है
आग उसमें बाकी है अभी
किरणों का राग बाकी है अभी
बस,
हवा के एक झोंके क़ी दरकार है
ये तो सब को पता है कि
हवा, बादल कि सबसे पुरानी तकरार है
रुको मत, झुको मत, निराश मत हो
पवन वेग से आता ही होगा
रखो भरोसा वो झोली में अपनी
उपहार प्रकाश का लाता ही होगा

पहला प्यार

पहला प्यार
पड़ोस से चलने लगती है ठंडी-ठंडी बयार
अच्छा लगने लगता है
छत पर खड़े हो करना घंटो इंतज़ार
अचानक ही
सारा मोहल्ला ख़ूबसूरत लगने लगता है
जैसे मोहल्ला न हुआ फूलों का बाग़ हो गया
सुरमई वीणा से निकला, मध्यम राग हो गया
होने लगती है अपने कपड़ों कि, बालों कि फ़िक्र
एक सिरहन-सी दौड़ जाती है बदन में
जो कहीं हो उसका जिक्र
नज़रें खुद को बचाने लगती हैं
दोनों के घरवालों से
दिल भर जाता है उलझनों से
अजीब से सवालों से
हाय,
वो ठंडी आहें, महबूब के घर की राहें
मंजिल की राह बन जाती हैं
और उन राहों पर जो एक बार नज़र जम जाती है
तो भूल जाता है सारा संसार
ऐसा होता है पहला प्यार