Friday, April 30, 2010

बीता हुआ लम्हा कभी गुज़रता नहीं है

बीता हुआ लम्हा कभी गुज़रता नहीं है
यादों का सैलाब कभी ठहरता नहीं है
एक लहर-सी उठती है जब तब दिल में
डूबी हुई घड़ियाँ दिखती हैं
गुज़रे कल के साहिल में
एक ठंडी सिहरन सर से पाँव तक दौड़ जाती है
'कल' से आज को, आज से 'कल' को जोड़ जाती है
आखिर हम जो आज हैं
उसकी नींव कल ही तो पड़ी थी
भले ही निकल पड़े हो नई क़ी तलाश में
कल तो ज़िन्दगी पुरानी मंजिल पर ही खड़ी थी
वैसे भी क्या पता
इस दुनिया में कब 'कल' ही 'कल' बन जाये
जिस बाने को समेट कर रख चुके हैं
वो फिर से तन जाये 
इसलिए बीते लम्हों को गुज़रा हुआ मत मानों
यादों में हलचल है उन्हें ठहरा मत जानों
जिससे, गर ज़िदगी फिर से
उसी मोड़ पर ले आये
तो 'कल' जो बिगड़ गया था
'कल' वो सँवर जाये 

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