Saturday, April 10, 2010

तुम्हारी आँखें

तुम्हारी आँखें
कुछ न कहकर भी एक महाग्रंथ रच देती हैं
जिसकी भाषा जिसकी लिपि से मैं अनजान हूँ
उन आँखों का उठाना
झुकना
कहीं टिककर रह जाना
उनमें तैरते डोरे, उनकी कोरें
अपने में न जाने कितनी
दास्तानें छुपाये हुए हैं
कहानियों का दीवाना मैं
उनके सामने होने के बावजूद
उन्हें पढ़ नहीं सकता
पर उनमें छुपे तथ्य को जाने बिना
रह भी नहीं सकता
तुम्हारी आँखें ही
मेरी बेचैनियों, मेरी उलझनों का सबब हैं
मैं उनकी गहराइयों में
न चाहकर भी डूब जाता हूँ
ऐसा
कि फिर उभर नहीं पाता हूँ
मुझे इस कदर न डुबाओ
कि कुछ कर न सकूं
यूँ बेबस न बनाओ
कि कुछ कर न सकूं

मैं साफ़ देख रहा हूँ उस दिन को

मैं साफ़ देख रहा हूँ उस दिन को
जब मैं सूली पर टंगा होऊँगा
लोग मुझ पर हँस रहे होंगे
पत्थरों से मेरा स्वागत कर रहे होंगे
कल तक मैं खुश था
क्यों कल से अनजान था
पर आज उदासी और परेशानी ही
मेरा चेहरा बन गई है
कल का जानना
सचमुच ही बड़ा दुखदायी है
तभी तो वो पीड़ा जो मेरे दिल में समाई है
रह रह के छलक आती है
आँखों में आँसू ही नहीं है
तभी तो वह बह नहीं पाती है
वो खुशियाँ वो ठहाके वो मुस्कराहट
अब दिल में नश्तर की तरह चुभती है
यह चुभन मुझे चीरती जा रही है
मैं कट रहा हूँ मैं मिट रहा हूँ
मेरी सांसें कीलों में ठुक कर
जड़ हो गई हैं
मेरी आँखें बंद हो रही है
अँधेरा छा रहा है



आँखें खोले देखता हूँ

आँखें खोले देखता हूँ
बस उस राह को जहां से
शायद कभी कोई मेरा आयेगा
दिखावे के कहकहों को
सच्ची मुस्कराहट में बदल जायेगा
हाँ मैं उसका इंतज़ार कर रहा हूँ
इस आस से कि
वो ज़रूर आएगा

ज़िन्दगी ख़ाक बन कर है अब रह गई

ज़िन्दगी ख़ाक बन कर है अब रह गई
हर कदम पर है दिक्कतों कि दीवार
नफरतें बढती ही जा रही है यहाँ
अब तो दिखता नहीं कहाँ गया प्यार
उलझनें ही उलझनें हैं बाकी रहीं
कमनसीबी का आलम है चारो सहर
ढूंढता हैं हर कोई पल ख़ुशी का यहाँ
पर ग़म बरसा रहा है अपना कहर
आदमखोरी का सुरूर चढ़ने लगा
इंसां भी हलाली का बुत बन गया
सोचों में गर्द ही गर्द छाने लगी
कत्लेआम में नहीं है अब कोई हया
हो रहा ये क्यों किसी को पाता नहीं है
ज़िन्दगी अब सभी की सजा बन रही है
सुधरेंगे कभी ये हालाते गुलशन
ऐसी तो मुझे अब उम्मीद नहीं है

चारों ओर के शोर से

चारों ओर के शोर से
परेशानियों के जोर से
जब हार कर एक पनाह चाहता हूँ
तो खुद को अकेला पाता हूँ
इतना अकेला कि उस अकेलेपन में
खुद ही खो जाता हूँ
इसलिए निराश हूँ
उदास हूँ हताश हूँ

जब कभी मन करता है

जब कभी मन करता है
कि कुछ लिखूं
तब खुद को विषयहीन पाता हूँ
पर कभी कभी मन में विचारों का
ऐसा उद्वेलन होता है
कि मैं हैरान हो जाता हूँ
उनके प्रभाव को उस अनुभव को
शब्दों में परिभाषित नहीं कर पाता हूँ
फिर सोचता हूँ कि जब लिखता हूँ
तो उसका मतलब क्या होता है
मेरे मन का मंथन किसी को क्या देता है
तब सोचता हूँ कि लिखना बेकार है
पर ये कैसे भूल सकता हूँ मैं
कि लिखने से मुझे प्यार है
बस सिर्फ इसीलिए लिखता ही जा रहा हूँ
कैसी क्यों और किसके लिए लिख रहा हूँ
ये जानने में खुद को असमर्थ पा रहा हूँ

मैं और तुम

मैं और तुम
नदी के दो पार हैं
जो साथ तो रहते हैं
पर कभी मिल नहीं सकते
रेल की पटरियां हैं
जो दूसरों को तो मंजिल तक पहुँचाती है
पर खुद कभी एक नहीं हो सकती
भले ही हम-तुम आमने सामने हैं
पास हैं
पर दूरियाँ हमेशा बनी रहेगी
मैं तुमसे कुछ कह नहीं सकता
क्यों कि राह में लफ़्ज़ों के खो जाने का डर है
ऐसा होने से और कुछ नहीं बस यही होगा कि
मैं तोड़ इया जाऊँगा
और मैं जानता हूँ कि
टूटा हुआ खिलौना
बेकार हो जाता है

जाने क्या होता अगर

जाने क्या होता अगर
मुझे न लगी होती ठोकर
होता मैं वहां जहाँ से
मैं लौट पाता नहीं
राह तो खो ही चुकी थी
मंजिल भी खो जाती कहीं
आँधियों की धूल को साफ़ कर
जब खोली मैंने आँखें
पाया की खड़ा हूँ वीराने में
कोई नहीं था साथी कहीं भी
ऐसी कुछ भूल हो गयी थी
जाने अनजाने में
भटकते भटकते एक नदी मिल गई
धार ले गई वहां मुझे
जहां सभ्यता का निवास था
शायद पा जाऊँ लक्ष्य को अब
ऐसा होने लगा विश्वास था
भले न छू पाया शिखर को
पर हूँ जहां ऊँचा ही हूँ
बुझ जाता प्रकाश मेरे हृदय का
तो रवि भी तिमिर मिटा पाटा नहीं
राह तो खो ही चुकी थी
मंजिल भी खो जाती कहीं