Saturday, April 10, 2010

ज़िन्दगी ख़ाक बन कर है अब रह गई

ज़िन्दगी ख़ाक बन कर है अब रह गई
हर कदम पर है दिक्कतों कि दीवार
नफरतें बढती ही जा रही है यहाँ
अब तो दिखता नहीं कहाँ गया प्यार
उलझनें ही उलझनें हैं बाकी रहीं
कमनसीबी का आलम है चारो सहर
ढूंढता हैं हर कोई पल ख़ुशी का यहाँ
पर ग़म बरसा रहा है अपना कहर
आदमखोरी का सुरूर चढ़ने लगा
इंसां भी हलाली का बुत बन गया
सोचों में गर्द ही गर्द छाने लगी
कत्लेआम में नहीं है अब कोई हया
हो रहा ये क्यों किसी को पाता नहीं है
ज़िन्दगी अब सभी की सजा बन रही है
सुधरेंगे कभी ये हालाते गुलशन
ऐसी तो मुझे अब उम्मीद नहीं है

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