Saturday, April 10, 2010

जाने क्या होता अगर

जाने क्या होता अगर
मुझे न लगी होती ठोकर
होता मैं वहां जहाँ से
मैं लौट पाता नहीं
राह तो खो ही चुकी थी
मंजिल भी खो जाती कहीं
आँधियों की धूल को साफ़ कर
जब खोली मैंने आँखें
पाया की खड़ा हूँ वीराने में
कोई नहीं था साथी कहीं भी
ऐसी कुछ भूल हो गयी थी
जाने अनजाने में
भटकते भटकते एक नदी मिल गई
धार ले गई वहां मुझे
जहां सभ्यता का निवास था
शायद पा जाऊँ लक्ष्य को अब
ऐसा होने लगा विश्वास था
भले न छू पाया शिखर को
पर हूँ जहां ऊँचा ही हूँ
बुझ जाता प्रकाश मेरे हृदय का
तो रवि भी तिमिर मिटा पाटा नहीं
राह तो खो ही चुकी थी
मंजिल भी खो जाती कहीं



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