माँ देख !
ये ज़माने वाले मुझे तंग करते हैं
अपने उलझन भरे सवालों से
मुझे दंग करते है
बिना वजह इधर-उधर दौडाते हैं
तरह तरह से के गम देते हैं डराते हैं
मैं रातों को सोता नहीं हूँ
दिन में जाग नहीं पाता
हर रास्ते में अकेला चलता हूँ
कोई साथ नहीं आता
देखो तो,
पाँव में छाले पड़ गये हैं
कोई मरहम नहीं लगाता
मुझे गर छींक भी आ जाती
तो तू परेशान हो जाती थी
तरह-तरह दवाएँ देती
अपने पहलू में सुलाती थी
भीतर से भी बाहर से भी
तू मुझे साफ़ रखती थी
मैं कहीं खो न जाऊं, इसलिए हमेशा अपने साथ रखती थी
पर अब मैं मैला हो गया हूँ, खो गया हूँ
चेहरे पर धुल, कालिख जम गयी है
तन गीला है गर्म सुर्ख़ पसीने से
अजीब सी गंध आती है खुद के जीने से
अपनी इस हालत के कारण मन आईना देखने से डरता है
और कुछ नहीं अब बस
तेरा आँचल ओढ़कर सोने को जी करता है
मुझे सुला दे, मेरी थकान मिटा दे
मुझे साफ़ कर दे फिर से
दुनिया ने दिए हैं जो निशान
सारे मिटा दे
Wednesday, April 28, 2010
लरजते होंठों से
लरजते होंठों से
तुमने जब भी कुछ कहा
वो अफसाना
ज़िन्दगी का फलसफा बन गया
जैसे
ईंट-ईंट जुड़कर ईमारत बनती है
लफ्ज़-लफ्ज़ गढ़कर इबारत बनती है
तुम्हारे एहसास ने
वैसे ही
मेरी बदहाल शख्सियत को
एक भरपूर आकार दे दिया
एक पनाह को अब तक
भटकता था यहाँ वहां
साए में आ तुम्हारे
बदन आराम पा गया
एक बूँद को तरसती थी वो तल्ख़ रूह जो
तर कर दे जो जहाँ को
उसे वो प्यार दे दिया
तुमने जब भी कुछ कहा
वो अफसाना
ज़िन्दगी का फलसफा बन गया
जैसे
ईंट-ईंट जुड़कर ईमारत बनती है
लफ्ज़-लफ्ज़ गढ़कर इबारत बनती है
तुम्हारे एहसास ने
वैसे ही
मेरी बदहाल शख्सियत को
एक भरपूर आकार दे दिया
एक पनाह को अब तक
भटकता था यहाँ वहां
साए में आ तुम्हारे
बदन आराम पा गया
एक बूँद को तरसती थी वो तल्ख़ रूह जो
तर कर दे जो जहाँ को
उसे वो प्यार दे दिया
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