Monday, April 12, 2010

तुम ही वो एकलौती शख्स हो

तुम ही वो एकलौती शख्स हो
जिससे मैं नफरत करना चाहता हूँ
पर तुम्हारे लिए मेरा प्यार
दिन-ब-दिन गहरा होता जा रहा है
मैं तुम्हे एक बुरा सपना समझ कर
भूल जाना चाहता हूँ
पर हर बार तुम एक हक़ीकत बन कर
मेरे सामने आ जाती हो
तुम मेरी बदनामी का सबब बनी
फिर भी मैं अपना नाम तुमसे जोड़ना चाहता हूँ
मैं तुम्हे अपने दिल से निकाल फेंकना चाहता हूँ
पर तुम्हारी यादें हर दिन मज़बूत होती जा रही है
कैसे मैं समझाऊँ खुद को
कि तुम एक अनदेखा ख्वाब हो
जो कभी पूरा नहीं हो सकता
क्या मैं बताऊँ अपने दिल को
कि तुम्हारे दिल में क्या है
काश तुम कभी समझ पाती कि
कितना मुश्किल होता है
उसे देखकर ये कह देना
कि मैं उसे नहीं जानता
जिसे तुम सबसे ज्यादा चाहते हो

मैं कौन

मैं कौन
एक मुसाफिर या एक ठहरा हुआ सैलाब
ज़िन्दगी के कई मीलों के पत्थरों को
पार करता हुआ
आ पहुंचा यहाँ तक
जहां से ये समझ पाना बहुत मुश्किल है
कि राह कौन सी है सही
मन को कोई और ठौर मिलती नहीं
बस दर्द और दर्द की लहरों से
जूझते ह्युए लड़ता रहा हूँ
पर अब दम चुकता जा रहा है
मैं थक रहा हूँ
पर क्या मैं यूँ ही गिर जाऊँगा
अपने को जाने बिना ही
अपनी राह से फिर जाऊँगा
ये तो मेरी नियति नहीं
मैं लडूंगा जूझता रहूँगा
जब तक खून की एक बूँद भी बची रहेगी
मैं डटा रहूँगा
और विश्वास है
मुझे मेरी पहचान मिलेगी .

सपने, अनदेखे अनजाने

सपने, अनदेखे अनजाने
जिनका सच से सम्बन्ध नहीं
क्यों आँखों में घिर आते हैं
फिर लगने लगती स्वर्ग ज़मीं
आम ज़िन्दगी के तनाव से
दूर कहीं ले जाते हैं
ये दिल क्यों डूबने लगता है
जब दूर ये चले जाते हैं
मैं खो गया हूँ इन सपनों में
मैं भूल गया हूँ जो गम है
इस ज़िन्दगी में है केवल दर्द
है लगा टूटने ये भ्रम है

वक़्त के बहाव में मुझे नहीं किसी का सहारा

वक़्त के बहाव में मुझे नहीं किसी का सहारा
जानूँ तैरना
पर हाथ नहीं चला पा रहा हूँ
सागर की गहराई कुछ इंच कम करने को
मैं तली में बैठने जा रहा हूँ
इस जीर्ण-शीर्ण काय पर
और भार अब मैं ढो नहीं सकता
ओ जलीय जीएवों सुन लो
हो जाओ खुश क्योंकि अब मैं
तुम्हारी भूख मिटाने को भोजन बन
तुम्हारे पास आ रहा हूँ

मैं समझ नहीं पा रहा हूँ

मैं समझ नहीं पा रहा हूँ
ये सब कुछ क्या हो रहा है
क्यों मुश्किलें कुकुरमुत्ते-सी बढ़ रही हैं
क्यों मेरा खुद से नियंत्रण खोता जा रहा है
उम्र कच्ची, आशाएं वयस्कता की
बोझ अपनों के सपनों का ढोते हुए
अब तक तो चला
पर अब असहाय होता जा रहा हूँ
मंझधार में मैं
और दूर है किनारा

मेरी रचनाओं का 'मैं' एक दिन

मेरी रचनाओं का 'मैं' एक दिन
बाहर निकल मुझसे पूछता है
तू मुझे ही केंद्र बनाकर क्यों
कागजों को रंगता है
क्यों मुझे ही तोड़ मरोड़कर
सामने परोसता है
क्यों निकालता है मेरे ही खून को पसीना बना
और क्यों फिर उसे खुद ही पोंछता है
अपने बोझ को मुझपर लाद
आप हल्का हो जाता है
तनाव की जलन में जलाने को क्यों
आग मेरे भीतर लगा जाता है
अपने ही 'मैं' को मुझसे यों सवाल करता देख
मैं अवाक रह गया
समझ गया की आज किसी और का होना तो दूर
आदमी खुद अपना ही नहीं रह गया