Monday, April 12, 2010

मैं कौन

मैं कौन
एक मुसाफिर या एक ठहरा हुआ सैलाब
ज़िन्दगी के कई मीलों के पत्थरों को
पार करता हुआ
आ पहुंचा यहाँ तक
जहां से ये समझ पाना बहुत मुश्किल है
कि राह कौन सी है सही
मन को कोई और ठौर मिलती नहीं
बस दर्द और दर्द की लहरों से
जूझते ह्युए लड़ता रहा हूँ
पर अब दम चुकता जा रहा है
मैं थक रहा हूँ
पर क्या मैं यूँ ही गिर जाऊँगा
अपने को जाने बिना ही
अपनी राह से फिर जाऊँगा
ये तो मेरी नियति नहीं
मैं लडूंगा जूझता रहूँगा
जब तक खून की एक बूँद भी बची रहेगी
मैं डटा रहूँगा
और विश्वास है
मुझे मेरी पहचान मिलेगी .

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