Monday, April 12, 2010

मेरी रचनाओं का 'मैं' एक दिन

मेरी रचनाओं का 'मैं' एक दिन
बाहर निकल मुझसे पूछता है
तू मुझे ही केंद्र बनाकर क्यों
कागजों को रंगता है
क्यों मुझे ही तोड़ मरोड़कर
सामने परोसता है
क्यों निकालता है मेरे ही खून को पसीना बना
और क्यों फिर उसे खुद ही पोंछता है
अपने बोझ को मुझपर लाद
आप हल्का हो जाता है
तनाव की जलन में जलाने को क्यों
आग मेरे भीतर लगा जाता है
अपने ही 'मैं' को मुझसे यों सवाल करता देख
मैं अवाक रह गया
समझ गया की आज किसी और का होना तो दूर
आदमी खुद अपना ही नहीं रह गया

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