Sunday, April 11, 2010

रात अकेली अकेला मैं

रात अकेली अकेला मैं
बिस्तर पर बैठा हुआ
कभी देखूं आगे बढती हुई घडी को
कभी पन्ने फड़फड़ाती किताब
कभी अतल में झांकूं कुछ सोचने लग जाऊं
फिर खोलकर कापी कुछ लिखने बैठ जाऊं
सामने बजता हुआ रिकॉर्ड मुझे कुछ सुना रहा है
देखकर मुझे परेशान वो गुनगुना रहा है
हटाता हूँ उससे कान
कमरे में फिर नज़र घुमाता हूँ
टिकती नहीं कहीं वो खुद को
फिर पहले के हालत में पाता हूँ
कुछ कार्टूनों कुछ खिलाडियों की पपड़ी में चिपकी हुई
तस्वीरों के बगल में फड़फड़ाता हुआ कैलेंडर
मुझे बता रहा है
की मेरी हलाली का दिन नज़दीक आ रहा है
पर मुझे उसका डर नहीं इंतज़ार है
मौत से जूझने का मेरा पहले से ही इकरार है
हूँ अकेला अभी पर लम्बा नहीं अकेलापन
कुछ ही देर में मौत के साथ महफ़िल जमेगी
फिर उस घडी को किताब को
बाजे को कैलेंडर को
मुंह चिढाता हुआ
महबूबा के साथ मैं रूखसत हो जाऊँगा

No comments:

Post a Comment