Saturday, April 10, 2010

तुम्हारी आँखें

तुम्हारी आँखें
कुछ न कहकर भी एक महाग्रंथ रच देती हैं
जिसकी भाषा जिसकी लिपि से मैं अनजान हूँ
उन आँखों का उठाना
झुकना
कहीं टिककर रह जाना
उनमें तैरते डोरे, उनकी कोरें
अपने में न जाने कितनी
दास्तानें छुपाये हुए हैं
कहानियों का दीवाना मैं
उनके सामने होने के बावजूद
उन्हें पढ़ नहीं सकता
पर उनमें छुपे तथ्य को जाने बिना
रह भी नहीं सकता
तुम्हारी आँखें ही
मेरी बेचैनियों, मेरी उलझनों का सबब हैं
मैं उनकी गहराइयों में
न चाहकर भी डूब जाता हूँ
ऐसा
कि फिर उभर नहीं पाता हूँ
मुझे इस कदर न डुबाओ
कि कुछ कर न सकूं
यूँ बेबस न बनाओ
कि कुछ कर न सकूं

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