पहला प्यार
पड़ोस से चलने लगती है ठंडी-ठंडी बयार
अच्छा लगने लगता है
छत पर खड़े हो करना घंटो इंतज़ार
अचानक ही
सारा मोहल्ला ख़ूबसूरत लगने लगता है
जैसे मोहल्ला न हुआ फूलों का बाग़ हो गया
सुरमई वीणा से निकला, मध्यम राग हो गया
होने लगती है अपने कपड़ों कि, बालों कि फ़िक्र
एक सिरहन-सी दौड़ जाती है बदन में
जो कहीं हो उसका जिक्र
नज़रें खुद को बचाने लगती हैं
दोनों के घरवालों से
दिल भर जाता है उलझनों से
अजीब से सवालों से
हाय,
वो ठंडी आहें, महबूब के घर की राहें
मंजिल की राह बन जाती हैं
और उन राहों पर जो एक बार नज़र जम जाती है
तो भूल जाता है सारा संसार
ऐसा होता है पहला प्यार
Friday, April 30, 2010
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