Friday, April 30, 2010

उन दिनों के हवा होने पर

उन दिनों के हवा होने पर
जब महफ़िलों में हमारा रसूख था
तन्हाई को भी जीने का
अंदाज़ हमारा क्या खूब था
खुद को ही दो हिस्सों में बात लेते थे
खुद से ही बहस कर वक़्त काट लेते थे
अपनी ही किसी बात पर ठहाका मार कर
आईने के सामने खुद के लिए खुद को संवार कर
अकेले ही ज़िन्दगी क़ी सैर पर निकल जाते थे
हमारी ज़िन्दादिली देख
पत्थरों के दिल भी पिघल जाते थे
तस्वीरों के लिए ख़त लिखते
पढ़कर उन्हें सुनाते थे
ख्यालों क़ी ईंटों से हकीक़त का सपना बनाते थे
वो मीठी-सी ख़ामोशी
व तन्हाई का आलम
अब याद बहुत आता है
ज़िन्दगी का शोर, चारो ओर जमी भीड़ का जोर
आँखों क़ी कोरों में पानी ले आता है 

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