Friday, April 30, 2010

पुरुष व्यग्र-सा अधीर-सा

पुरुष व्यग्र-सा अधीर-सा
चला जा रहा था
एक अनजान दिशा की ओर
रिक्त-रिक्त विश्व था
आवाजें थी सन्नाटे की
सी-सी करती हुई
पर्णहीन वृक्ष, तृणहीन थी धरा
सूरज की किरणें चुभ रही थीं
लथपथ
शरीर स्वेद से, पग रक्त से
चला जा रहा था वह
अवचेतन, अनमयस्क-सा
अंततः दृश्य परिवर्तित हुआ
नवपलाश वृक्षों पर फूटे
धानी हो गयी धरती सारी
कलरव गूँज उठा विहगों का
पुष्पों से झुक-झुक आई दारी
पुरुष ठहर गया आखिर में
चलने लगी बयार, मिटाते सारे विकार
सूरज की भी गर्मी पिघल गयी
सृष्टि मुस्कुराई
पुरुष को नारी मिल गयी 

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