Sunday, May 9, 2010

सूरज यहाँ कुछ ज्यादा ही मेहरबान है

सूरज यहाँ कुछ ज्यादा ही मेहरबान है
इसलिए धरती बंजर है बेजान है
नदिया चौमासे में भी सुखी रहती है
कभी पानी बहता था अब उनमे धुल बहती है
देश में कभी भारत उदय होता है कभी भारत निर्माण होता है
पर हम तो अब भी भूखे नंगे हैं
इनसे जाने किनका कल्याण होता है...
यहाँ खेतो में उगता है सुखा पेट में भूख पलती है
ज़िन्दगी यहाँ रोटी से नहीं
मिड दे मील और नरेगा के आश्वासन से चलती है
गाँव निर्मल है हर घर में शौचालय है
भले ही अस्पताल नहीं न ही विद्यालय है
कब्ज़ और अतिसार से पीड़ित लोग कागज़ी शौचालयों में नहीं
बंजर खेतो में नज़र आते है
कंटीली झाड़ियो से शर्म का पर्दा बनाते है
साल गुज़रे जनसँख्या बढ़ी
पर गाँव वीरान हैं
बूढ़े हैं बच्चे हैं महिलाये हैं
पर न कोई भी नौजवान है
दिल्ली और भोपाल दोनों ही बहुत दूर हैं
किससे पूछे की गर देश बढ़ रहा है
तो हम क्यों मजबूर हैं
क्यों उनकी आवाज़ हर ५ साल में बस चोंगे पे सुनाई देती है
पैरो पे खड़े मुर्दों की सूरत उनको क्यों न दिखाई देती है
शायद उनके नयनो को भाते बस मालाओ के नोट हैं
इस मुल्क में हम इन्सान नहीं, महज़ चुनावी वोट हैं!!!!

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