Tuesday, April 13, 2010

पता नहीं क्यों

पता नहीं क्यों
अपनी कविताओं में 'तुम' 'तुम' 'तुम' लिखते हुए
मैं उकताता नहीं हूँ
तुम्हारे मुस्कुराते हुए चेहरे को
अपनी आँखों में बसा
मैं अपने हर एक शब्द में
तुम्हे सिर्फ तुम्हे देखता रहता हूँ
तुम, जिसमें दुनियाभर की
मासूमियत, नजाकत और खूबसूरती समाई हुई है
तुम जिसकी खुशबू
मेरे दिल के आँगन में छाई हुई है
तुम्हारे रोशनी बिखेरते चेहरे को देखकर
मैं कैसे ऊब सकता हूँ
तुम मेरी साँसों में बसी हो
मेरी धड़कन में तुम्हारी ही अनुगूंज है
अब अगर मैं अपनी साँसों, अपनी धडकनों से ही
ऊबने लगूंगा
तो जियूँगा कैसे ?

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