मेरी आँखों के सामने
गुज़रा ज़माना बैठा है
जिस्म की सिलवटों से बयाँ होता
एक फ़साना बैठा है
फ़साना
जो कल तक हलचलों से भरा था
हरा था
जो नदिया की कलकल धारा था
जिसने कल को सँवारा था
आज
फर्श पर गिरे पानी-सा हो गया है
बहुत थक गया था
जैसे अब सो गया है
धीरे धीरे उसका फैलाव
सिकुड़ता जा रहा है
उसका असीमित विस्तार
अपने में ही समा रहा है
पर उस ठहरे हुए पानी में अब भी
थोड़ी-सी हलचल बाकी है
होंठों के चौड़ा होने को
बस इतना सा कारण काफी है
Monday, April 26, 2010
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