जाड़ा
यूँ लगता है जैसे
हर जगह छा गया है
कँपाता, हड्डियों को गलाता
अंतर में समाया गया है
रिश्तों में भी मौसम होते हैं
बदलते हैं मिजाज़ गुज़रते वक़्त के साथ
कल तक उनमें थी बहार
था प्यार
पर ठंडक ने वहाँ भी घर कर लिया है
अपने दम से
बाहों को सिकुड़ने पर
मजबूर कर दिया है
Monday, April 26, 2010
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