आखिरकार वो सपना ही निकला
जिसे कल तक मैं सच्चाई समझता था
आज वह टुकड़ों में बिखरा पड़ा है
जिस शीशमहल में कल तक मैं रहता है
वे टुकड़े रह रहकर पैरों में चुभ रहे हैं
पर जाने क्यों दर्द का एहसास नहीं हो रहा है
मेरा सपना टूट चूका है
चाहकर भी इस पर विश्वास नहीं हो रहा है
दिल कह रहा है की जो हुआ जिसे मैंने देखा
वाही एक सपना है, बुरा सपना
सच्चाई ढकी है अब तक ये कि
वो अपना है मेरा अपना
मैं उलझन में हूँ कि
जाऊं किस ओर रुख किधर को करूँ
मन में जलते हुए सवालों के अंगारों को
छिपा किस ओर धरूँ
मुझे खुद भी ये नहीं पता कि
मेरा अगला क्या विचार है
शायद सही वक़्त आने का
अब मुझे इंतज़ार हैं
Friday, April 16, 2010
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