Friday, April 16, 2010

आखिरकार वो सपना ही निकला

आखिरकार वो सपना ही निकला
जिसे कल तक मैं सच्चाई समझता था
आज वह टुकड़ों में बिखरा पड़ा है
जिस शीशमहल में कल तक मैं रहता है
वे टुकड़े रह रहकर पैरों में चुभ रहे हैं
पर जाने क्यों दर्द का एहसास नहीं हो रहा है
मेरा सपना टूट चूका है
चाहकर भी इस पर विश्वास नहीं हो रहा है
दिल कह रहा है की जो हुआ जिसे मैंने देखा
वाही एक सपना है, बुरा सपना
सच्चाई ढकी है अब तक ये कि
वो अपना है मेरा अपना
मैं उलझन में हूँ कि
जाऊं किस ओर रुख किधर को करूँ
मन में जलते हुए सवालों के अंगारों को
छिपा किस ओर धरूँ
मुझे खुद भी ये नहीं पता कि
मेरा अगला क्या विचार है
शायद सही वक़्त आने का
अब मुझे इंतज़ार हैं

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