अब मैं जब कभी भी सुकून की तलाश में
अपनी आँखें बंद करता हूँ
तो हर बार मेरी हार सामने आकर
मेरे वजूद को चुनौती देने लगती है
हर वो मोड़ जहां मैं चकराया
हर वो राह जहां मैंने ठोकर खायी
एक नश्तर-सी बन
दिल में चुभने लगती है
जीत का ज़ायका कभी पता ही न चला
मन में लगी आग में हरदम ही मैं जला
मेरा हर कयास हर कोशिश
नाकाम होती गई
ग़मगीन अंधेरों की गहराइयों में
मुझे और अन्दर डुबोती गई
अब मैं कहाँ हूँ
ये मुझे क्या, किसी को भी नहीं पता
हर वक़्त ही मुझसे होती रही
कोई न कोई ख़ता
मैं ख़तावार हूँ
अपनी गलतियों की सज़ा पा रहा हूँ
अपनी ही नहीं
अपने वालिद की इज्ज़त भी खा रहा हूँ
Friday, April 16, 2010
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