कल रात को बरसा था पानी
भीगी हुई सुबह है
ख्वाब में तो तुम आये ही थे
अब खिलवत में भी आ जाओ
एक मुद्दत गुज़र गई है
फिर अब ये दिल क्यों मचलता है
तुम प्यार से छूकर के आँखों से
इस पागल को बहला जाओ
गूंजते हैं कानों में जाने क्यों
लफ्ज़ जो निकले थे होंठों से तुम्हारे
आओ, आकर उन लफ़्ज़ों को
गाकर गीत बना जाओ
रूठा है मेरा खुदा मुझसे
अब दिन नहीं कटते हैं मुहर्रम के
आओ, सिज़दा सिखा इस काफ़िर को
उसके रमजान की नजामत कर जाओ
Sunday, April 18, 2010
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