Sunday, April 18, 2010

कल रात को बरसा था पानी

कल रात को बरसा था पानी
भीगी हुई सुबह है
ख्वाब में तो तुम आये ही थे
अब खिलवत में भी आ जाओ
एक मुद्दत गुज़र गई है
फिर अब ये दिल क्यों मचलता है
तुम प्यार से छूकर के आँखों से
इस पागल को बहला जाओ
गूंजते हैं कानों में जाने क्यों
लफ्ज़ जो निकले थे होंठों से तुम्हारे
आओ, आकर उन लफ़्ज़ों को
गाकर गीत बना जाओ
रूठा है मेरा खुदा मुझसे
अब दिन नहीं कटते हैं मुहर्रम के
आओ, सिज़दा सिखा इस काफ़िर को
उसके रमजान की नजामत कर जाओ

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