Sunday, April 18, 2010

कहीं दूर से तुम बुलाती हो मुझे

कहीं दूर से तुम बुलाती हो मुझे
आकर के सपनों में
रातों को जगती हो मुझे
कभी एक खनकती आहात
कभी एक चमकती-सी झलक
आ जाओ न सामने
क्यों सताती हो मुझे
ख्वाबों में भी अब तक ठीक से
देखा नहीं तुमको
अभी तक बिखरी-बिखरी है तस्वीर तुम्हारी
दीदार का इंतज़ार कर-कर थक गया हूँ
नज़रे-इनायत कर दो
राहों में बिछी हैं नज़रें बेचारी
अच्छा चलो ये तो बताओ
क्या तुमको भी मुझसे प्यार है
मुझसे मिलने के लिये
क्या तुम्हारा दिल भी बेक़रार है
....क्यों पूछता हूँ ये सब
जब तुम हो नहीं कहीं
कल्पना से बात करने के
कोई मायने नहीं
ग़र हो तो बोलो सामने
क्यों आती नहीं मेरे
कोई तो तुम जवाब दो यों चुप नहीं रहो
दिल को ज़रा सुकून दो
तोड़ो मेरी उलझनों के घेरे

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